Saturday, August 7, 2010

गतांक से आगे




fदनकर जी को हमने छड़ी लिए निकलते देखा। हमने पंडाल के भीतर घुसने का प्रयास किया पर हमें आयोजको ने भीतर नहीं जाने दिया. हमने अपने कभी होने का वास्ता दिया किन्तु उन निष्ठूरो का मन नहीं पसीजा. कवी सम्मलेन प्रारंभ हो चूका था. हमें सरस्वती वंदना के स्वर सुने दे रहे थे. रह-रह कर हमारा दिल छारखता था . हम इस जुगार में थे पंडाल में कैसे जाया जाये.पंडाल खच-खच भरा हुआ था. २-३ हज़ार श्रोता पंडाल से बाहर भी थे. जो बहार से ही कविता सुन कर संतोष कर रहे थे.



सहसा हमारे भाग्य का पिटारा खुला. रात्री ११ बजे काका हाथरसी पधारे. काली दाड़ी, ऊनी कुर्ता, और सफ़ेद धोती, छरहरा बदन हमने पहकी बार काका को देखा . पहचान लिया वह बहुत लोक-प्रिय कवी थे . उन्हें नज़दीक से देखने के लिए ५०-६० आदमियों की भीड़ उनके पीछे-पीछे चल रही थी . हम भी उसी भीड़ में शामिल हो गए. काकाजी के पीछे-पीछे १५-२० लोग जबरदस्ती घुड गए. उसमे हम लोग भी थे . हम दोनों सीधे मंच पर जाकर बैठ गए उदयप्रताप सिंह संचरण कर रहे थे. काका हाथरसी को देखने के लिए पूरा पांडाल खड़ा हो गया. आज हमने जाना के कवी की लोक प्रियता क्या चीज़ होती हें ? उदय प्रताप ने हास्य कवी शेल चतुर्वेदी को काव्य खंड के लिए बुलाया. उन्होंने चल गयी कविता सुनाई. श्रोता हसी के मरे लोट-पोत हो रहे थे. परिचितों में केवल निर्दोषी जी रहे थे. इतना बड़ा अखिल भारतीय कवी सम्मलेन मैंने पहली बार देखा था.

1 comment:

डा. महाराज सिंह परिहार said...

आदरणीय सागर जी। दिनकर जी सहित कवि सम्‍मेलन के संदर्भ में इतने अच्‍छे संस्‍मरण के लिए आप स्‍तुत्‍य हैं। आपके यही संस्‍मरण कालांतर में कवि सम्‍मेलनों के इतिहास के अमिट दस्‍तावेज होंगे। इसी तरह आप कवि सम्‍मेलनों की आपबीती तथा जगबीती भी लिखें जिससे काव्‍य प्रेमियों तथा काव्‍य भंजकों को कुछ रुचिकर पढने को मिलेगा। आभार सहित